लोगों की राय

बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - अभियान

राम कथा - अभियान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :178
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 529
आईएसबीएन :81-216-0763-9

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

34 पाठक हैं

राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान


नौ


हनुमान ने सारी कार्यवाही धैर्यपूर्वक देखी और सुनी थी। स्वयं उनके अपने लिए समझना कठिन था कि उनके मन में क्या-क्या घटित हुआ था। एक बार तो ऐसा लगा था कि जैसे वे सर्वथा संवेदनशून्य ही हो गए हैं। उनके सम्मुख उनके मृत्युदण्ड का आदेश दिया जा रहा है और वे उससे प्रभावित ही नहीं हो रहे। उनके मन में कोई प्रतिक्रिया ही नहीं हो रही...क्या वे अपनी मृत्यु के भय से जड़ हो गए थे? नहीं, इस प्रकार के भय का अनुभव उन्होंने नहीं किया था। कदाचित् मस्तिष्क यहां आकर रुक गया था कि अधिक-से-अधिक मृत्युदण्ड ही तो मिलेगा...या मन मृत्युदण्ड के लिए प्रस्तुत हो गया था।

हनुमान के लिए उस क्षण अपने मन का विश्लेषण करना कठिन हो रहा था।...पर अब मन, उस जड़ावस्था से बाहर निकल आया था। वह सोचने-समझने लगा था...हनुमान समझ रहे थे कि विभीषण ने उन्हें बचा लिया था।...अशोक वाटिका में देवी वैदेही ने उन्हें बताया था कि विभीषण तथा अविंध्य उनकी रक्षा के लिए प्रयत्नशील हैं। पर विभीषण का सारा व्यवहार बता रहा था कि वे केवल देवी वैदेही की सुरक्षा के लिए ही सचेष्ट नहीं थे; वे सिद्धान्ततः रावण के इन कृत्यों के विरोधी थे और उसके अन्याय और अत्याचार के भरसक प्रतिकार के लिए व्यावहारिक रूप से सक्रिय थे। विभीषण ने हनुमान को बचा लिया था...

पीछे से किसी ने हनुमान को धक्का दिया; "चल!''

हनुमान के पग उठे, किन्तु उनकी दृष्टि विभीषण पर टिक गई। विभीषण उन्हीं की ओर देख रहे थे। उनकी आंखें कितनी वाचाल थीं इस समय। कितना कुछ एक साथ ही कह रही थीं...कितनी करुणा थी उनमें, सद्भावना...और चेतावनी भी...सभागार से बाहर निकलकर हनुमान ने स्वयं को एक नये लोक में पाया। रावण, मेघनाद, विभीषण तथा अन्य लोग पीछे छूट गए थे। अब हनुमान थे और राक्षस सैनिकों का पूरा एक गुल्म! हनुमान के शरीर में केवल उनके पैर ही मुक्त थे, जिनसे वे चल पा रहे थे; अन्यथा सारा शरीर रस्सियों से जकड़ा हुआ था। रस्सियों के अनेक फंदों ने उनके शरीर को कस रखा था, जिनके सिरे उनके पीछे-पीछे चल रहे सैनिकों के हाथों में थे। टुकड़ी का नायक उनके साथ-साथ चल रहा था, और लगातार कोई-न-कोई आदेश देता चल रहा था। हनुमान को लगा कि वे रथ में जुते घोड़े के समान हैं, जो सारथी की अनुमति से केवल निर्देशित दिशा में भाग सकता है...

सहसा उनकी कल्पना में विदा के समय विभीषण का आंखों में जागा भाव पुनः साकार हो आया। लगा, हनुमान जो तब नहीं समझे थे, वह अब समझ रहे हैं। कितना खुलकर कह रही थीं, विभीषण की आंखें, "हनुमान! मैंने तेरे जीवन की रक्षा कर दी है। अब यह तेरी बुद्धि पर निर्भर है कि तू इन सैनिकों से मुक्त हो सकता है, या इनके हाथों मारा जाता है...।" हनुमान का मस्तिष्क उल्लास से जगमगा उठा। अभी तक कुछ नहीं बिगड़ा था। एक बार हनुमान के मन में आया कि वे यदि अकस्मात् ही वेगपूर्वक भाग निकलें तो ये रस्सियां इन सैनिकों के हाथों से निकल जाएंगी और वे मुक्त हो सकेंगे...किन्तु अगले ही क्षण उन्होंने यह विचार भी त्याग दिया।...उनके पैर मुक्त थे किन्तु भुजाएं तथा शरीर बंधा हुआ था। सैनिकों ने बाणों का प्रहार किया तो वे क्या करेंगे?...और दिन का समय था। चारों ओर आवागमन सघन हो रहा था। और सैनिक बुलाने तथा बद्ध हनुमान को घेरकर पकड़ने में उन्हें कितना समय लगेगा?

सैनिक उन्हें निर्विघ्न चलने नहीं दे रहे थे, थोड़ी-थोड़ी देर के पश्चात् वे उन्हें धक्का अथवा ठोकर मार देते थे। कभी-कभी हाथ में पकड़ी रस्सियों के सिरों से वे कशा का काम लेते थे। मारने का कोई विशेष कारण हनुमान की समझ में नहीं आया। चलने की गति अथवा मुड़ने की दिशा से उसका कोई संबंध नहीं था। अपना अधिकार अथवा आक्रोश दिखाने के लिए अपनी इच्छानुसार वे अपना हाथ अथवा हाथ में पकड़ी रस्सी फटकार देते थे। कदाचित् यह हनुमान को अपमानित करने अथवा रात के युद्ध का प्रतिशोध लेने के लिए भी हो सकता था।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai